Saturday, August 27, 2011

जाति सूचक सरनेम क्यों न बंद हों?

प्रतीक पंथी 
"अपना ब्लॉग" के माध्यम से मैं एक प्रश्न आप सब पाठकों के सामने रखना चाहता हूँ.
ये प्रश्न है की क्या हमे जातिवादी  सर-नेम लगाना बंद नहीं कर देना चाहिए?

आज आप जिधर भी देखें, नाम के साथ जातिसूचक सर-नेम बहुतायत से पाए जाते हैं. जैसे हर कंप्यूटर फाइल की एक विशेष एक्सटेंशन होती है, वैसे ही लगभग हर नाम के साथ एक सरनेम रूपी एक्सटेंशन का इस्तेमाल हो रहा है. जैसे फाइल की एक्सटेंशन उस फाइल की केटेगरी और उसके व्यवहार गुण व उपयोग आदि को इंगित करती है, वैसे ही एक इंसान के नाम के साथ लगा सर-नेम उसके धर्म, वर्ण, जाति, समाज मे उसका स्थान, उसके साथ किया जा सकने वाला बर्ताव का लेवेल -उसका चयन आदि तय करता है. 

अगर किसी कंप्यूटर फाइल मे एक्सटेंशन न हो, तो यूज़र के लिए वो भ्रम पैदा कर देती है और यूज़र तय नही कर पाता की उस फाइल का वो क्या करे!! वैसे ही भारतीय समाज की विडंबना है की सामान्यतया एक अजनबी व्यक्ति के बारे मे जब तक सामने वाला ये तय नहीं कर लेता की उसकी "जाति" क्या है या हो सकती है, वो खुलकर बर्ताव नहीं कर पाता और असहज रहता है. साथ ही वह डाइरेक्ट्ली या इनडाइरेक्ट्ली ये कोशिश करता रहता है कि आपका सर-नेम वो किसी तरह पता कर ले. अगर नहीं पता कर पाता है तो लोग दो तरीके आमतौर पर अपनाते हैं, जो बेशर्म होते हैं वो सीधे सीधे पूछ लेते हैं की प्रतीक कुमार जी, आगे क्या लगाते हैं? और थोड़ा सयाना होगा तो कहेगा -
"प्रतीक शर्मा जी, आपसे मिलकर खुशी हुई"; 
-माफ़ कीजिए मैं प्रतीक हूँ पर 'शर्मा' नहीं! 
-"तो क्या हैं आप ही बता दीजिए?!"

कहीं कहीं लोग रिश्ते नाते-दारी के बहाने कहानी शुरू कर देंगे की फलाँ फलाँ गाँव मे हमारी भाभी के मामा की लड़की ब्याही है, वो ठाकुर हैं. वो आपके क्या लगते हैं? 
-अब क्या बताएँ?

कुमार नाम के साथ मैं जहाँ भी जाता, लोग उससे आगे का "शब्द" जानने के लिए ही उत्सुक दिखते, ताकि आगे की बात की जा सके. जाहिर है मैं बता देता और आगे की बात 98% केस मे पूर्वाग्रह पर आधारित ही होती और भारी अवसाद के साथ मुझे सीता की तरह धरती मे समाना पड़ता. सच्चाई पता चलते ही उन्हे मेरे प्रति 2 सेकेंड पहले किए अच्छे बर्ताव पर बड़ा पछतावा सा होता और आगे की बात वो बड़े एहसान से करते. 

सवाल वही, क्या हम बिना जाति जाने व्यवहार नहीं कर सकते? क्या बिना जातिसूचक सर-नेम के हमारा कोई वजूद नही? क्या हम इसके इस्तेमाल को बंद करके सिर्फ़ अपने नाम से काम नहीं चला सकते? क्या हम अपने नाम को अपने बर्ताव, व्यवहार, गुण और काम से पहचान और सम्मान नहीं दिलवा सकते? 

जब बेवजह भारतवर्ष का समाज काम के आधार पर वर्णों मे बाँटा गया, तो ये कहा गया की जन्म से सब अज्ञानी पैदा होते हैं और जैसे जैसे वो गुण प्राप्त करते हैं और जो काम अपनाते हैं, वैसे वैसे उनका वर्ण तय होता है. पर ये नियम कभी उपयोग मे लाया गया हो, ऐसा लगता नहीं. कार्य जन्म से बाँटकर आगे भी जन्मजात कर दिए गये और जातियाँ कार्य पर आधारित न होकर जन्म पर आधारित कर दी गयीं और सम्मान भी. कौन सा लॉज़िक लगाया और कौन सा क़ानून, वो कोई सभ्य इंसान जस्टिफाइ नहीं कर सकता.

तब से जातियाँ जन्म से चली आ रही हैं और उनके साथ जुड़ा सम्मान भी जन्म से ही तय हो रहा है. यही सम्मान आप जन्म से इस्तेमाल करने के लिए जातिसूचक सर-नेम लगाते हैं. जिसे जाति व्यवस्था से जन्म आधारित बिना मेरिट का सम्मान मिला है, वो इसे सबसे ज़्यादा उपयोग करते हैं. इसके विपरीत जिन्हे जन्म आधा�����ित बहिष्कार और अपमान का अवसाद झेलना पड़ रहा है, वो इस जाति सूचक शब्द का इस्तेमाल करने से वैसे ही बचता है जैसे किसी अपराध का दोषी अपना दोष पब्लिक मे सिद्ध कर दिए जाने से डरता है. पर जुर्म क्या किया है हमने? 

समाज मे जब सब समान हों, तो कोई छोटा बड़ा नहीं होता. और जब कोई बड़ा बनता है तो वो बिना किसी को छोटा बनाए बड़ा नहीं बन सकता. जब आप जाति सूचक सर-नेम लगाकर अपनी इज़्ज़त बढ़ाते हैं तो याद रखें की वो इज़्ज़त आप किसी के हिस्से से कम कर देते हैं, मेरे जैसो के हिस्से से कम कर देते हैं.... जब तथाकथित उच्च जाति का सर-नेम और ज़्यादा इज़्ज़त दार हो जाता है तो कथित निम्न जाती और ज़्यादा नीचे धकेल दी जाती है. 

वर्ण और जाति जैसी घ्रनित व्यवस्था कब, क्यों और किसने शुरू की, वो मैं इस ब्लॉग मे डिसकस नहीं करूँगा, पर जो हुआ, उसे कम से कम अब तो सपोर्ट मत करो!! आप समता मूलक समाज की सिर्फ़ बात करते हैं, पर उसके लिए क्या करते हैं? आज हर और अन्ना और रामदेव की ही चर्चा है क्योंकि वो भ्रष्टाचार के खिलाफ खड़े हैं, पर उस भ्रष्टाचार पर सब मौन क्यों हैं जो इस देश का सबसे पुराना और सबसे बड़ा भ्रष्टाचार है, और वो है वर्णव्यवस्था के नाम पर समाज का बटवारा और उससे उपजा जातिवाद रूपी सामाजिक भ्रष्टाचार, जिसने जन्म से लोगों के सम्मान का घोटाला किया, और इस घोटाले से हज़ारो साल तक लाखों और करोड़ो लोग ना केवल सामाजिक रूप से बहिष्कृत कर दिए गये बल्कि अत्यंत विकृत और अमानवीय रूप से उनका शोषण और उत्पीड़न होता रहा!!

जब बात कर्म की और उसके आधार पर सम्मान प्राप्त करके अपनी पहचान बनाने की है तो वो हुआ क्यो नहीं, और कम से कम अब क्यो नहीं हो रहा? 

शायद मुझे सलाह देने का भी हक न हो, पर विनती तो कर ही सकता हूँ और आपको ये बता तो सकता ही हूँ की जब आप जातिसूचक सर-नेम का उपयोग करते हैं, तो आप उसी सामाजिक भ्रष्टाचार का समर्थन करते हैं जो आज फैले भ्रष्टाचार से कहीं ज़्यादा बड़ा था, आप जन्म से सम्मान के बटवारे का समर्थन करते हैं, आप कर्म से मेरिट नहीं, बल्कि जन्म से मेरिट का समर्थन करते हैं, आप किसी को अतिरिक्त सम्मान बेवजह देकर उसे किसी और के हिस्से से कम करते हैं, आप समाज के बँटवारे का समर्थन करते हैं, आप जन्म आधारित ऊँच नीच का समर्थन करते हैं, आप इंसान और इंसान में जन्मजात भेद को समर्थन करते हैं, आप अन्याय का समर्थन करते हैं, आप सामाजिक विद्वेष का समर्थन करते हैं, आप असमानता का समर्थन करते हैं और अगर आपको इन सब का ज्ञान ना भी हो तो अंजाने ही आप इन सब बातों का पालन करके इसे आगे बढ़ाते जाते हैं. 

अब आप ही बताइए, जब सारा देश भ्रष्टाचार को न सहने की कसम खाकर अन्ना और रामदेव के साथ खड़ा है तो हमारे साथ चले आ रहे इस अन्याय का समर्थन आप भला सिर्फ़ जाति सूचक सर-नेम लगाना छोड़कर क्यों नहीं बंद कर सकते? क्या इसके लिए भी लोकपाल की आवश्यकता है, क्या ये आपके बूते की बात नहीं, क्या आप यहाँ भी मजबूर हैं, विवश हैं? बताइए?

जाति, लहू और साजिश!


प्रतीक पंथी  
कुछ चिन्हित और विशेष वर्गो के खिलाफ सामूहिक और सामुदायिक हिंसा बहुत समय से भारतीय समाज की विशेषता रही है. बदलाव के दौर मे अक्सर विभिन्न समाजों के बीच हिंसात्मक टकराव देखने को मिलते रहे हैं, ख़ासकर तब, जब की मौजूद रहे सामाजिक और शक्ति समीकरण मे बदलाव लाने की कोशिश होती है. ये दमनकारी हिंसा किसी वर्ग मे अपने शिकार जन्म के आधार पर नहीं ढूँढती. लेकिन भारत मे कुछ ख़ास वर्गो को ही जन्म के आधार पर इस हिंसा का शिकार बनाया जाता रहा है. देश ने आज़ादी के बाद से धार्मिक और जातीय, दोनो तरह की हिंसा मे ही बढ़ोत्तरी देखी है, जिसे  आधुनिकीकरण भी शांत या कम नहीं पाया. इसके विपरीत कुछ मायनों मे उल्टे आधुनिकीकरण और विकास से ये और ज़्यादा बढ़ गयी.  

धार्मिक उन्माद और सांप्रदायिक हिंसा जहाँ थोड़े दिन पहले से ही शुरू हुए हैं और मुख्यतया देश के बटवारे से उपजी घृणा से प्रभावित है, वहीं जाति आधारित हिंसा की जड़ें हमारे सबसे पुराने इतिहास से बहुत ही गहराई से जुड़ी हैं.  इसकी विशेषता है कि जाति आधारित मान्यताएँ सामाजिक संरचना मे घनीभूत/ समाई  है और यही उसका आधार तय करती है. समाज के ज़्यादा और कम अधिकार रखने वाले वर्गों मे आचरण के नियम, मापदंड, संबंध आदि इसी के द्वारा तय होते हैं. यही हज़ारो साल पुरानी हिंदू समाज की जाति आधारित व्यवस्था ही है जो उच्च और निम्न वर्ग द्वारा दोनो और से दबाव झेलकर डिस्टर्ब हो रही है. हिंसक घटनाओ की आवृत्ति और तीव्रता / गंभीरता निम्न वर्ग द्वारा जातिगत कर्म छोड़कर समाज मे उपर की और उठने के प्रयास पर प्रतिक्रिया स्वरूप होती है जो फलस्वरूप कथित उच्च वर्ग मे खलबली मचा देते हैं और चिंतित उच्च वर्ग वर्षो पुराने अपने विशेषाधिकारों के बचाव के लिए कथित निम्न वर्ग पर दबाव डालने के लिए हिंसा और अत्याचारो का सहारा लेता है.

दूसरे शब्दों मे, राज्य  द्वारा दलितो के सामाजिक और आर्थिक स्तर को उठाने के जो उपाय किए गये, उनसे दलितो ने जातीय बंधन से जुड़े कार्यों को छोड़कर समाज मे उपर उठने की प्रक्रिया शुरू की, जिसे कथित उच्च वर्ग ने अपने विशेषाधिकारों का अतिक्रमण मानकर प्रतिक्रिया स्वरूप अपने परंपरागत जातीय विशेषाधिकारो और जातीय स्तर की रक्षा के लिए हताश और क्रोधित होकर दलितो के प्रति हिंसा का सारे आम  उपयोग किया. दलितो के साथ होने वाली हिंसा इस बात पर निर्भर करती है की राज्य की नीति से फ़ायदा लेकर कितने दलित जाति आधारित कार्य छोड़कर समाज मे अपना स्तरी सुधारने की कोशिश करते हैं. ज़्यादा सुधार के परिणाम और ज़्यादा सुधार के प्रयास दलितों के खिलाफ ज़्यादा घृणा, ईर्ष्या और ज़्यादा प्रतिक्रियात्मक हिंसा मे परिणत हो जाते हैं. 
इन हिंसाओं ने लोगो के वर्ग और समूहों के खिलाफ अत्याचारों के भयानक और क्रूरतम रूप लेने शुरू कर दिए जैसे सामूहिक नर संहार, बलात्कार, आगज़नी, सामाजिक बहिष्कार (जिसका उद्देश्य लोगों की ज़रूरी सुविधा और ज़रूरते पूरा करने के रास्ते को रोक कर अक्षम / अपंग बना देना होता था). ये समझने के लिए की ऐसा क्यों होता हैऔर इसे कैसे रोका जा सकता है, इस मुद्दे को समाज व राज्य संबंधों की गतिशीलता के विशाल परिदृश्य मे देखना पड़ेगा.  

जातीय हिंसा के शिकार ज़्यादातर हिंदू सामाजिक विभाजन की सबसे नीचे की श्रेणी मे आने वाले वे लोग होते हैं जिन्हे अछूत (अ���ुसूचित जाति) के रूप मे जाना जाता है, जो बाकी के समाज के साथ एक ना बदल सकने वाले कर्तव्यों के बंधन से जकड़े हैं. छुआ छूत या अस्पृश्यता की परंपरा इसी संबंध को प्रदर्शित करती है.

जाति व्यवस्था मे अस्पृश्यता या छुआ छूत की शुरूवात  कैसे हुई, इसके बारे मे न कोई एक राय है ना सहमति. जहाँ कुछ लोग इसका प्रादुर्भाव कृषि सभ्यता के देश मे फैलने से जोड़ते हैं जिसके लिए श्रमिकों  और काम गारों की एक सुरक्षित न्यूनतम संख्या हमेशा उपलब्ध होना आवश्यक था; वहीं कुछ लोग इसका उदगम भारतीय सभ्यता के विस्तारीकरण स्वरूप, आर्यों द्वारा मूल निवासियों को जीतकर उनको गुलाम बना लेने मे ज़्यादा सार्थक पाते हैं. ऋग्वेद काल के अंत मे 'शूद्र' शब्द इन्ही गुलाम बना लिए गये लोगों को इंगित करता है, जिन्हे निम्न सामाजिक स्तर प्रदान किया गया, जो की उनके इस समुदाय मे जन्म से जुड़ा था.

शुरूवात होने का कारण जो भी रहा हो, सभ्यता मे सामाजिक व्यवहार को नियत और नियंत्रण करने वाली ये सामाजिक प्रणाली जाति व्यवस्था के नाम से जानी गयी, जो की हिंदू समाज को उर्ध्वाधर चार मुख्य भागो मे बाँटती है जिन्हे वर्ण कहते हैं. इस व्यवस्था के शीर्ष पर ब्राह्मण (पुरोहित वर्ग), फिर क्षत्रिय (योद्धा), फिर वैश्य (व्यापारी वर्ग) और फिर शूद्र (मजदूर और सेवक वर्ग) सबसे नीचे आते हैं.
अछूत इस वर्ण व्यवस्था का हिस्सा नहीं थे लेकिन समय के साथ ज़रूरतों ने एक पाँचवा वर्ग भी जोड़ दिया जिसे जाति की मान्यता नहीं दी गयी लेकिन ये इन चार वर्णो से इंटेग्रल्ली जुड़ा हुआ था और अछूत या आउट कॅस्ट स्टेटस के साथ ही मौजूद रहा. इस वर्ग की सदस्यता सिर्फ़ जन्म से ही थी और किसी के व्यक्तिगत प्रयासों या किसी समाज के द्वारा स्वीकार कर लेने से परिवर्तित नहीं की जा सकती थी. ये चार वर्ण समय के साथ सैंकड़ों सब-कॅस्ट मे बँट गये जो जाति के नाम से जानी गयीं. हर जाति का अपना एक सामाजिक नियम होता जिसके अंतर्गत रहकर ही वो सामाजिक समागम और व्यवहार करते हैं.

जाति संरचना 6 अभिलक्षणों से प्रतिबिंबित होती है:

1. समाज का वर्ग विभाजन,
2. उत्तरोत्तर विभाजन और श्रेणिया (पदानुक्रम),
3. ख़ान पान और व्यवहार के प्रतिबंध और बंधन,
4. पेशा चुनने की स्वतंत्रता का अभाव,
5. नागरिक और धार्मिक प्रतिबंध और कुछ वर्गो के विशेषाधिकार,
6. शादी संबंधों का सख़्त नियमन और प्रतिबंधन.

समाज का चार वर्गो मे विभाजन, व्यवसाय और सामाजिक स्तर का भी विभाजन है और एक दूसरे वर्ग से उत्तरोत्तर श्रेणी संबंध से जुड़ा हुआ है. ब्राह्मण इस श्रेणी मे सबसे उपर बैठे हैं और अछूत सबसे नीचे.  क्योंकि जाति व्यवस्था पवित्र और दूषित के सिद्धांत पर काम करती है, इसलिए अछूतों को सबसे गंदा माना गया क्योंकि उनको दूषित काम सोपे गये. ख़ान पान और व्यवहार के प्रतिबंध हर जाति के लिए कोड ऑफ कंडक्ट का आधार तय करते की कौन क्या देख सकता है और क्या नहीं, कोई क्या छू सकता है और क्या नहीं, किस जाति का दिया कौन सी जाति स्वीकार कर सकती है अथवा नहीं आदि आदि.

व्यवसाय पर प्रतिबंध इस उद्देश्य के साथ लगाए गये ताकि लोग अपना काम बदलकर इस व्यव���्था को असंतुलित कमजोर कमजोर न कर दे. नागरिक और धार्मिक प्रतिबंध अछूतों को मुख्य गाँव के दायरे से बाहर ही रहने की अनुमति देते, वो गाँव के कुए से पानी नही ले सकते, मंदिर मे प्रवेश नहीं कर सकते, यज्ञोपवीत धारण नहीं कर सकते, शिक्षा प्राप्त नहीं कर सकते, धार्मिक मंत्रोच्चारण नहीं कर सकते. अछूतों को सबसे हीन माने जाने वाले कार्य सौंपे गये जैसे गंदगी साफ करना, मानव मल को हाथ से साफ करना, मृत पशुओं की लाश उठाना, कब्र खोदना, शमशान मे मुर्दे जलाना आदि आदि.

जाति से बाहर शादी संबंधों पर पूर्ण रूप से प्रतिबंध, और यहाँ तक की उप-जाति के बाहर भी शादी संबंधो पर प्रतिबंध इस उद्देश्य के साथ लगाया गया ताकि वर्ग न ख़तम हो जाएँ या एक ग्रूप दूसरे ग्रूप मे न सम्मिलित हो जाए या संबंध ना बढ़ा ले.

इस प्रकार  अछूतों  ने सभी मामलों मे समाज से अलगाव झेला, अत्यंत अमानवीय बर्ताव झेला, सबसे हीन काम किए और उन्हे कोई अधिकार नहीं था की वो इस स्थिति को बदलने की भी सोचें, ना ही ऐसा करने के संसाधन, सहारा या कोई समर्थन उनके पास था!

जातीय बंधनों द्वारा समाज को कमजोर करने की घटना से जाति आधारित अत्याचारों का फैल जाने की घटना को  कोई तीसरी -चौथी सदी  मे खोजा जा सकता है जब जाति व्यवस्था पहले से तय सामाजिक नियमों की पटरी से उतरती प्रतीत होने लगी और जातीय अनुशासन को पहले जैसा बनाए रखने के लिए बहुत सख़्त नियमों की ज़रूरत समझी जाने लगी ताकि इसकी सीमाएँ ना बदलें और उच्च वर्ग के विशेषाधिकारों का अतिक्रमण होने का ख़तरा ना पैदा हो पाए. 

राजा इस सिस्टम के पालनहार (धर्म की रक्षा करने वाला) , रखवाले के तौर पर उभरा. जो भी पहले से तय सामाजिक नियमों का उल्लंघन करता पाया गया उसे राज दन्ड से दंडित किया जाता और सख़्त सज़ा दी जाती और कुछ लोगों से बहुत से अनुष्ठान भी दंड स्वरूप करवाए जाते (जैसे ब्राह्मण को गाय दान कर देना आदि आदि) . इस प्रकार उच्च जातियों द्वारा निम्न जातियों पर शारीरिक हिंसा की शुरूवात हुई. सदियों तक यही व्यवस्था चलती रही. दलित वर्ग के लोग इस व्यवस्था मे पिसते रहे क्योंकि उनके पास कोई साधन नहीं था इस व्यवस्था से बचने का. पीढ़ी दर पीढ़ी उन्हे ये भी विश्वास दिलाया गया की वो जो भुगत रहे हैं, वो पिछले जनम मे अपने धर्म (सामजिक व्यवस्था आदि) का सही से पालन ना करने के कारण है और अगर वो अपने धर्म का इस जन्म मे पूरे अनुशासन से पालन करेंगे तो अगले जन्म मे ज़रूर मुक्ति मिल जाएगी इस सब से!
मध्यकाल मे जन्मे कुछ संत जैसे कबीर, नानक, रविदास आदि मौजूद सामाजिक व्यवस्था के आलोचक थे और उन्होने प्रेम, स्नेह, लगाव, दया और भाईचारे का पाठ जनता को पढ़ाया. लेकिन उन्होने भी जाति व्यवस्था का विरोध या समाज से इस व्यवस्था को ख़तम करने प्रयास और इसके खिलाफ बोलने का साहस नहीं किया. प्रचलित नियम जाती प्रथा का समर्थन करते रहे और शासक, समाज मे इसको धर्म के रूप पालन कराने की ज़िम्मेदार निभाते रहे .
मुस्लिम शासन के दौरान शोषित वर्ग के कुछ लोग इस शोषण से बचने के लिए मुस्लिम बन गये होंगे, लेकिन ऐसा कोई प्रमाण मौजूद नहीं है की कभी मुस्लिम शासकों ने कभी भी हिंदुओं के इस जाति सिस्टम मे हस्तक्षेप करने की कोशिश की हो या इसमे किसी सुधार की ही कोशिश की हो. उनके शासन करने की रण-नीति ने शायद उन्हे इस सब को करने से रोका होगा. 
जब अंग्रेज आए तो उन्होने समानता पर आधारित क़ानून लागू किया. उनका नियम सब पर बिना किसी की समाज मे स्थिति से प्रभावित हुए और सब पर समान रूप से लागू होता था. ब्रिटिश क़ानून मे ब्रिटिश काल पूर्व लागू क़ानून से बहुत ज़्यादा फ़र्क मौजूद थे. जहाँ ब्रिटिश क़ानून सबके लिए समान था, वहीं हिंदू क़ानून जाति पर आधारित था और सज़ा भी जाति को ही आधार मानकर दी जाती थी. कोई 'जुर्म' किस जाति ने किस जाति के प्रति किया है, वही सज़ा का पैमाना होता. इस प्रकार के डिफरेन्षियल पनिशमेंट सिस्टम (भेदभाव आधारित दंड विधान) मे जिस जुर्म के लिए अछूत को मौत के घाट उतारा जा सकता था, उसी के लिए ब्राह्मण को कोई सज़ा ही ना हो, ऐसा भी हो सकता था. जिस जुर्म के लिए किसी को सूली पर चढ़ा दिया जाता, उसी के लिए दूसरे को सिर्फ़ ब्राह्मण को गाय दान करके छुट्टी मिल सकती थी . क़ानून को हक ही नहीं था की ब्राह्मण को सज़ा सुना सके या दंड दे सके.  जो भी हो, इस नये सिस्टम मे भी दलितो-अछूतों के पास ना तो साहस ही बचा था और ना ही उनके पास कोई संसाधन थे की किसी भी परिस्थिति मे कोई राहत किसी भी प्रकार से और कहीं से भी प्राप्त कर सके

ब्रिटिश राज मे भी हिंदू समाज से जुड़े मुद्दों मे जाति ही सबसे विशेष पहचान बनी रही. ब्रिटिश क़ानून की बदली व्यवस्था ने भी दलितो की सामाजिक स्थिति मे कोई परिवर्तन लाने मे सहायता नहीं की क्योंकि अंग्रेज़ो की नीति हिंदुओं के अंदरूनी धार्मिक मामलों मे हस्तक्षेप की नही थी. कुछ भेदभाव के मुद्दों जैसे मंदिर मे प्रवेश, गंदे काम करने की बाध्यता, कुछ वर्गों के दूसरे वर्गों पर विशेषाधिकार आदि के मामलों मे अँग्रेज़ी कोर्ट ने हिंदुओं के प्रचलित नियम को ही आधार माना और कोर्ट्स के इस रुख़ को प्रिवी काउन्सिल मे भी सही ठहराया गया. लेकिन कुछ नागरिक सुविधाओं के मामले मे कोर्ट्स के रुख़ मे बदलाव आया जहाँ उसने जाति आधारित प्रतिबंधों को सही नहीं मानाऔर सबको रास्ते और सड़क इस्तेमाल करने की इजाज़त दी. लेकिन जब भी कोई मामला कोर्ट के सामने आया, तो जाति आधारित प्रतिबंधों से छुटकारा दिलाने मे कोर्ट्स ने किसी भी  मामले मे कोई दलितों को सहायता नहीं दी और ना ही इस मामले मे हस्तक्षेप किया.

सामाजिक धरातल पर इस काल ने हिंदू समाज मे कई समाज सुधार आंदोलन देखे जैसे, ब्रह्मो समाज, प्रार्थना समाज, आर्य समाज, रामकृष्णा मिशन, थोसॉफिकल सोसाइटी, सोशियल कॉनफ्रेन्स आदि जिन्होने जाति प्रथा और हिंदू धर्म की कुछ और कु प्रताओं पर आघात किया. इन आंदोलन कर्ताओं ने चार वर्ण व्यवस्था आधारित सामाजिक सिस्टम का विरोध ना करते हुए जाति आधारित अमानवीय अस्पृश्यता की परंपरा की निंदा की.

आज़ादी के लड़ाई के दौरान गाँधी जी ने अस्पृश्यता को हटाने के लिए बहुत प्रयास किए. दक्षिण अफ्रीका मे गाँधीजी ने नश्लीय भेदभाव का सामना किया और उनका ध्यान देश के दलितो पर गया. इसके लिए उन्होने ऑल इंडिया हरिजन संघ की स्थापना की.  दक्षिण मे ब्राह्माणवाद के खिलाफ आत्म सम्मान आंदोलन शुरू किया गया. ये भीम राव अंबेडकर थे, जिन्होने जातिवादी शोषण के खिलाफ इस लड़ाई को ऑल इंडिया डिप्रेस्ड क्लासस फेडरेशन का गठन करके स्फूर्ति के साथ इस आंदोलन को मुखर रूप दिया. 

1909 के आस पास जब अछूतो को विधायिका मे लाने के लिए विशेष प्रतिनिधित्व के प्रस्ताव लाए गये, तो अछूतो के मुद्दे ने काफ़ी राजनीतिक महत्व प्राप्त कर लिया. 1917 मे कॉंग्रेस ने एंटी - डिसेबिलिटी प्रस्ताव पास  किया. 1930 के दौरान एंटी-डिसेबिलिटी बिल को मद्रास और बॉम्बे स्टेट की सेंट्रल लेजिस्लेटिव असेंब्ली मे पेश किया गया. 1938 मे मद्रास लेजिस्लेचर ने जाति आधारित प्रतिबंधो को दूर करने के लिए सबसे पहले क़ानून पास करके अछूतो के साथ अस्पृश्यता और भेदभाव करने को अपराध घोषित कर दिया. इसके द्वारा सभी सार्वजनिक स्थानो जैसे सड़कें, कुए, यातायात के वाहन आदि तथा अन्य स्थानों जैसे भोजनालय, होटेल, दुकाने आदि मे भी क़ानून नेजाति आधारित भेदभाव और जाति आधारित विशेषाधिकारो को, जो हिंदू क़ानूनों द्वारा प्रचलित थे, तत्काल प्रबाव से गैर क़ानूनी घोषित कर दिया. अलग अलग राज्यों मे भी एक के बाद एक यही किया गया. इसके बाद मद्रास ने दलितों को मंदिर मे प्रवेश की अनुमति दिलाने के लिए एक और कदम उठाया और किसी भी हिंदू को (दलितो सहित) किसी भी मंदिर मे प्रवेश और पूजा पाठ आदि का अधिकार दिया और प्रवेश करने से रोकने को गैर क़ानूनी अपराध घोषित कर दिया गया. 

हालाँकि ब्रिटिश सरकार ने कभी भी शुद्रो (पिछड़ो) और दलितो (अछूतो) की सामाजिक स्थिति को बेहतर करने के लिए कोई सकारात्मक कदम नहीं उठाया. इस प्रकार आज़ादी के समय भी अछूतो की परंपरागत स्थिति और उन पर जाति आधारित प्रतिबंध, जो उनको एक आत्म सम्मान वाली जिंदगी जीने से  रोकते थे, वैसे ही पहले की तरह प्रचलित रहे. इस प्रकार आज़ादी के बाद ये ज़िम्मेदारी, कि भूत काल से चली आ रही इन जाति आधारित व्याधियों और प्रतिबंधों को तोड़कर भविष्य मे अस्पृश्यता को पूरी तरह छोड़कर और शुद्रो और दलितो के लिए पूरी तरह समानता आधारित समाज की स्थापना की जाए, भारतीय संविधान सभा पर छोड़ दी गयी. संविधान ने ही इस उद्देश्य को प्राप्त करने के साधन और नियम विधि द्वरा स्थापित किए, जो आगे कभी बताए जाएँगे.

साभार:NHRC Report by K.B Saxena (for, Govt. of India) से प्रभावित.

सामाजिक समानता के लिए संवैधानिक उपाय

प्रतीक पंथी  
ब्लॉग "जात, लहू और साजिश" से आगे ...

अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के सामाजिक स्तर मे सुधार के लिए संविधान में त्रि-आयामी (त्रि-स्तरीय) रण नीति बनाई गयी, जो इस प्रकार हैं:

1. सामाजिक सुरक्षा प्रदान करके: 

  • न्यायिक/नियमन साधनों द्वारा समानता के सिद्धांतको लागू करके और सामाजिक बाधाओं को दूर करके,
  • दलितों पर होने वाली शारीरिक हिंसा के अपराधियों को कठोर दंड का प्रावधान करके,
  • ऐसे परंपरागत नियमों, प्रबंधों को बंद करके, जो दलितों की डिग्निटी ( गरिमा )और आत्म सम्मान को ठेस पहुँचाते हैं.
  • उनके परिश्रम की उचित कीमत और फल की प्राप्ति सुनिश्चित करके,-प्राकृतिक संसाधनों पर किसी खास वर्ग का ही अधिपत्य कम करके,
  • दलितों को उपलब्ध कराई गयी सुविधा, अधिकार, लाभ आदि की देखभाल के लिए स्वतंत्र आयोगो का गठन करके.

2. कमपेनसेटरी डिस्क्रिमिनेशन (प्रति पूरक भेदभाव ): सार्वजनिक सेवाओं, प्रतिनिधि संगठनों/ निकायों, शैक्षिक संस्थानों मे आरक्षण लागू करके व अन्य सहायता प्रदान करके.

3. विकास: अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति और अन्य समुदायों के बीच पैदा हुई खाई को पाटने के लिए लाभ और संसाधनों का पुनरवितरण करके. 

ये नीति राज्य (भारत) द्वारा कार्यान्वित की गयी और तब से इस नीति के प्रति प्रतिबद्धता, भारत राज्य की विशेषता रही है. समय समय पर ये नीति ज़रूरत पड़ने पर और ज़्यादा मजबूत बनाई गयी और साथ ही ज़रूरत के मुताबिक इसका दायरा भी बढ़ाया गया है. 
जहाँ तक सुरक्षा संबंधी प्रायोजनों की बात है, तो खुद संविधान मे काफ़ी विस्तृत रूप से उन परंपराओं, नियम क़ानूनों, सामाजिक संस्थागत प्रबंधों और दलितों पर थोपी गयी किसी भी अन्य प्रकार की अमानवीय  और भेदभावी स्थिति को ख़तम करने की ढाँचागत रूपरेखा दी गयी है जो अस्पृश्यता को समाज मे लागू करते हैं, उसका अनुमोदन करते हैं या इस हीन परंपरा के पालन को प्रोत्साहित करते हैं.

इन संवैधानिक प्रबंधों को लागू करने के लिए क़ानून बनाए गये. उदाहरण के लिए:

The Untouchability Practices Act,  1955 संविधान के आर्टिकल 17 को लागू करने के लिए बनाया गया.  इस क़ानून को फिर से सख़्त बनाया गया और 1976 मे सन्सोधित करके इसे Protection of Civil Rights Act के नाम से ज़्यादा प्रभावी रूप मे लागू किया गया. बाद मे अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के सदस्यों पर लगातार बढ़ते गये जघन्य अत्याचारों और हिंसा, जैसे सामूहिक नर संहार, बलात्कार, आगज़नी, गंभीर हमलो द्वारा शारीरिक क्षति आदि के फलस्वरूप राज्य को एक बार फिर गंभीर फ़ैसले लेने पड़े और दलितों को सुरक्षा के लिए विशेष क़ानून बनाना पड़ा जिसे "Scheduled Caste and Scheduled Tribe (Prevention of Atrocities) Act, 1989के नाम से जाना गया और इसमे पहले से अधिक कठोर सजाओं का प्रावधान किया गया ताकि ये क़ानून दलितो के लिए प्रतिरक्षक ढाल का कार्य कर सके. इसी क़ानून का शोषक समाज ने जमकर विरोध किया. यही क़ानून वर्ग विशेष द्वारा "हरिजन एक्ट" के नाम से प्रचारित किया गया. 
समाज मे स्थापित परंपराओं और क़ायदे क़ानूनों द्वारा दलितों को परंपरागत कार्यों में धकेलने के विरुद्ध और उनके अपने सामाजिक स्तर मे सकारात्मक बदलाव लाने के प्रयासों में सहयोग के लिए समय समय पर अतिरिक्त क़ानूनों को भी प्रभाव मे लाया गया. 

The Employment of Manual scavengers and Construction of Dry Latrines (Prohibition) Act, 1993  नामक क़ानून, जो दलितों द्वारा हाथ से अन्य नागरिकों के मानव मल को साफ करने की अतिहीन कुप्रथा को ख़तम करने के लिए बना था, इन नियमों मे सबसे महत्वपूर्ण है. 
जो एक अन्य कुप्रथा रोकी जानी थी, वो थी दलित लड़कियों का मंदिरों मे देवदासी के नाम पर यौन शोषण. आंध्रा प्रदेश और कर्नाटक ने देवदासी नाम की इस प्रथा को तत्काल प्रभाव से ख़त्म करने के लिए क़ानून पास किए. इस प्रथा के द्वारा जवान दलित लड़कियाँ स्थानीय देवता को देवदासी के नाम पर भेंट चढ़ा दी जाती थीं, जिनका मंदिर के पुजारियों द्वारा यौन शोषण होता था. देवता के नाम पर मंदिर के पुजारी/पुरोहित, दलित लड़कियों का शोषण करते रहे थे.  महाराष्ट्र मे 1934 मे ही इस घटिया परंपरा को बंद करने का क़ानून बन चुका था. कुछ क़ानून जो, इस उच्च वर्ग द्वारा शुरू की गयी दलित बालिकाओं के शारीरिक शोषण इस नीच धार्मिक परंपरा को गैर क़ानूनी घोषित करके इसके उन्मूलन और प्रतिबंध के लिए पास किए गये, वो इस प्रकार हैं:
  • Andhra Pradesh Devdasi (Prohibition of Dedication) Act, 1988
  • Karnataka Devdasi (Prohibition of Dedication) Act, 1992
  • Hindu Religious and Charitable Endowment Act, 1927 of Mysore.
  • The Bombay Devdasi Protection Act, 1934 
(उपरोक्त क़ानूनों का बनाया जाना इस परंपरा के वजूद, उसके प्रचलन और पुरोहित वर्ग के दलित वर्ग के प्रति घृणित और अमानवीय नज़रिए का सेल्फ़ एक्सप्लनेटरी और लीगल प्रूफ है)

रोज़गार प्रदाता/नियोक्ता द्वारा अपने यहाँ नियुक्त काम गारों/श्रमिकों के शोषण को रोकने के लिए भी क़ानून बनाया गया. इस क़ानून का मकसद मालिक द्वारा मजदूरों की सही मज़दूरी का भुगतान पक्का करना, कार्य के चुनाव की स्वतंत्रता दिलाना, ताकि नियोक्ता दावरा श्रमिकों पर अमानवीय और श्रमिकों की इच्छा के विपरीत कार्य करने की बाध्यता लादना बंद करना सुनिश्चित किया जा सके, अपने शोषण के खिलाफ आवाज़ उठाने की स्वतंत्रता आदि आदि का ध्यान रखा गया. हालाँकि ये क़ानून अनुसूचित जाति और अनुसूचित/जन जाति के लिए ही विशेष रूप से न होकर, हर वर्ग के श्रमिक पर लागू होता है, पर इसका सबसे बड़ा प्रभावित वर्ग दलित वर्ग ही था क्योंकि सबसे ज़्यादा मजदूर और श्रमिक इसी वर्ग से आते थे और आते हैं.
इस उद्देश्य के लिए बने क़ानून इस प्रकार हैं:
  •  Bonded Labour System (Abolition) Act, 1976, बंधुआ मज़दूरी प्रणाली(निषेध) एक्ट, 1976
  •  Minimum Wages Act, 1948, मिनिमम वेजस आक्ट,
  •  Equal Renumiration Act, 1976, 1948, ईक्वल रीम्यूनरेशन आक्ट, 1976
  •  Child Labour (Prohibition and Regulation) Act, 1986, चाइल्ड लेबर (प्रोहिबिशन आंड रेग्युलेशन) आक्ट, 1986
  •  Inter-State Migrant Workmen (Regulation of Employment and Conditions of Services) Act, 1979, इंटर-स्टेट माइग्रेंट वर्कमेन (रेग्युलेशन ऑफ एंप्लाय्मेंट आंड कंडीशन्स ऑफ सर्वीसज़) आक्ट, 1979

दलित समुदाय को समाज की मुख्य धारा से निकल दिए जाने और समाज से बहिष्कृत रखे जाने के फलस्वरूप सभी प्रकार के लाभकारी और उत्पादन के साधनों पर उच्च वर्ग का ही अधिकार रहा. इस कारण आज़ादी के समय भी लबभग सभी प्राकृतिक और बौद्धिक संसाधन इस उच्च वर्ग के ही पास अत्यधिक घनत्व के साथ केंद्रित थे, और दलित समुदाय इनसे सभ्याता के समय से ही वंचित रखा गया. आर्थिक संसाधनों और लाभकारी संपदा के कथित सवर्ण समाज के पास ही भारी मात्रा मे एकत्रित पाए जाने पर भी चोट की गयी. इस विषय के अंतर्गत "लैंड रिफॉर्म लॉ"  (भूमि शुधार क़ानून), जिसका उद्देश्य अनुसूचित जाति व जनजाति के साथ साथ गाँव मे अन्य ग़रीब तबके के लोगों को भूमि का पुनरवितरण शामिल था, लागू किया गया. 

डेट रिलीफ लेजिस्लेशन्स (ऋण राहत कानून) साहूकारों और सूद खोरों के हाथों ग़रीब लोगों के शोषण को रोकने और पैसे के लेन देन को नियमित करने के उद्देश्य से लागू किए गये.

सामाजिक सुधार की इस  रणनीति का दूसरा भाग कमपेनसेटरी डिस्क्रिमिनेशन (प्रति पूरक भेदभाव / क्षतिपूर्ति भेदभाव या सकारात्मक कार्यवाही) से संबंधित है जो निम्न लिखित प्रायोजन लागू करता है:

  • सार्वजनिक सेवा की नियुक्ति और प्रमोशन मे आरक्षण लागू करके,
  • विधायिका की सीटों मे आरक्षण लागू करके (केंद्रीय, राज्य, पंचायत राज, मुनिसिपल बॉडीस आदि),
  • शैक्षिक और प्रोफेशनल कॉलेजस की सीट मे आरक्षण लागू करके,
  • निर्धारित योग्यता मापदंडो मे छूट प्रदान करके,
  • फीस मे छूट या माफी प्रदान करके, आदि आदि.
ये सब उपाय यह सुनिश्चित करने के उद्देश्य के साथ किए गये की दलित समुदाय के लोग भी देश के सार्वजनिक तंत्र की शक्ति और निर्णयों मे अपना हिस्सा ले सके, साथ ही उनको उच्च शिक्षा प्राप्त करने के भी अवसर उपलब्ध हो सकें. ये महसूस किया गया था की यह वर्ग जन्म जन्मान्तर और सदियों की अर्जित की गयी कमज़ोरी, व्यापक रूप में प्रचलित सामाजिक शोषण और सामाजिक अपंगता के कारण खुली प्रतियोगिता मे अपना ज़रूरी हिस्सा नहीं ले पाएगा. इन प्रायोजनों का उद्देश्य दलितों और उस क्षेत्र मे रह रहे अन्य वर्गों के बीच पैदा हुई सामाजिक अंतर की गहरी खाई को पाटना था.

सामाजिक सुधार की इस रण नीति का तीसरा पहलू दलितों के व्यापक और बहुदिशीय विकास पर फोकस करता है. इस विषय के अंतर्गत लाभो का सीमांकन करके व तरह तरह की योजनाओं के अंतर्गत धनराशि जारी करके दलितों की आर्थिक स्थिति को सुधारने का प्रयास किया गया है ताकि समाज मे दलितों का उन्नयन (उपर की और गमन) हो सके. इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए प्रायोजन था की योजना के अंतर्गत जारी राशि का एक निश्चित प्रतिशत अनिवार्य रूप से दलितों के लाभ वाली योजनाओं पर ही खर्च किया जाए. अनुसूचित जाति के केस मे इस प्रकार के प्रबंध को "स्पेशल कॉंपोनेंट प्लान" के नाम से जाना जाता है और इसके अंतर्गत ज़िम्मेदार एजेंसी दलितों के हित के लिए योजना बनाकर धन राशि पास करती है जो कम से कम उस राज्य मे दलितों की जनसंख्या के प्रतिशत के बराबर होती है और केंद्रीय योजनाओं मे देश की कुल आबादी मे दलितों के प्रतिशत के बराबर होती है. (उत्तर प्रदेश की राज्य योजना मे  = 21%, केंद्रीय योजना मे= 15%). ये संसाधन दलित समुदाय के लिए ऐसे प्रोग्राम और गतिविधियों मे खर्च किए जाते हैं जो सीधे तौर पर दलितों की आर्थिक स्थिति को बेहतर बनाने मे मददगार साबित होते हों. 

इसी नियम के समानांतर, स्टेट पॉलिसी द्वारा प्रावधान किए गये की विभिन्न विकास कार्यक्रमों, जिनसे आम आबादी के लाभ जुड़े हों, उनमें लाभ प्राप्त करने वाले लोगों की संख्या का एक निश्चित प्रतिशत अनुसूचित जाति व जन जाति से होना सुनिश्चित किया जाएगा और किसी भी स्थिति मे उनकी उस राज्य मे जनसंख्या मे हिस्से के प्रतिशत से कम नहीं होगा. ऐसा इसलिए करना पड़ा ताकि संस्थाएँ लाभों का एक तरफ़ा वितरण करके दलितों को उनके हिस्से से वंचित न कर दें, जैसा की परंपरागत तौर पर समाज मे होता आया. 

कुछ विशेष कार्यक्रमों के अंतर्गत, जहाँ दलितों और शेष समाज के बीच अत्यधिक विशाल अंतर पाए गये, वहाँ विशेष संस्थागत कार्यक्रमों द्वारा इस खाई को पाटने के लिए अतिरिक्त संसाधन जारी किए गये, जिसके अंतर्गत साक्षरता का विस्तार, ग़रीबी-उन्मूलन कार्यक्रम, घर और खेती के लिए ज़मीन का आवंटन आदि शामिल हैं.

दलित समुदाय की बहुदिशीय सुरक्षा के उपाय करने के साथ साथ इस बात की निगरानी रखनी भी बहुत आवश्यक थी कि दलितों के लिए किए गये उपाय सही मे ज़मीनी हक़ीकत बन भी रहे हैं या नहीं और इस समुदाय के हिस्से के लिए जारी की गयी सुविधा उन तक पहुँच भी रही है या नहीं. इस उद्देश्य के साथ चार निगरानी संस्थाएँ / आयोग बनाए गये. 

  1. राष्ट्रीय अनुसूचित जाति व जनजाति आयोग की स्थापना स्वयं संविधान के अंतर्गत की गयी,
  2. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की स्थापना Proctection of Human Rights Act, 1993 के अंतर्गत हुई,
  3. राष्ट्रीय महिला आयोग की स्थापना National Commission for Women Act, 1990 के अंतर्गत हुई,
  4. राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग की स्थापना National Commission for Safai Karmacharis Act, 1993 के अंतर्गत हुई है.

मानवाधिकार आयोग और महिला आयोग, किसी विशेष जाति के लिए ना होकर देश के हर एक नागरिक के लिए स्थापित हुए हैं, लेकिन इनके कार्यक्षेत्र हमेशा ही दलित समुदायसे सबसे ज़्यादा जुड़े रहे, जिनका अधिकार हनन सबसे ज़्यादा होता आया.


उपरोक्त संवैधानिक प्रबंधों से स्पष्ट है की राज्य, दलितों के प्रति होने वाली हिंसा और इसके कारणों की जड़ को सामाजिक व्यवस्था और परंपरागत पदानुक्रमित संबंधों मे पाता है और इन तथ्यों को क़ानूनी रूप से स्वीकार करता है, जो दलितों को सामाजिक आधीनता और इनडिग्निटी से भरी जिंदगी मे झोंक कर अवसाद भरा जीवन जीने को मजबूर करते हैं. 

यहाँ बताई गयी त्रि-स्तरीय पॉलिसी धीरे धीरे उन कारकों को ख़त्म करने मे सहायता करेगी जो दलितों के प्रति हिंसा के रूप में परिणत हो जाते हैं या कारण बनते हैं और इस तरह समय के साथ साथ समाज मे समानता का आगमन और प्रसार होगा, जो समय लेगा. बड़े सोच विचार के बाद सामाजिक समानता लाने के लिए बनाया गया ये मॉडेल, समय के साथ साथ अनुभवों के आधार पर और सुदृढ़ किया गया और सोशियल इंजिनियरिंग के द्वारा सुधार के लिए देशभर मे प्रयासरत है.

यह बात भी स्पष्ट रूप से उभर कर सामने आती है की सामाजिक संबंधों को बदलने की इस प्रक्रिया मे राज्य की भूमिका न केवल बेहद महत्वपूर्ण बल्कि निर्णायक रूप मे रही है. इसमे कोई शंका नहीं की राज्य को ये भूमिका, जागरूकता के साथ साथ एक सकारात्मक झुकाव से इन हाशिए पर रखे गये और वंचित (सुविधा विहीन और अधिकारहीन) समुदायों के पक्ष मे प्रयोग करनी थी, जब भी दुर्जेय और अभेद्य उच्च वर्ग इस वंचित समुदाय के सामने रुकावट बना खड़ा हो. राज्य के सामने स्पष्ट था की ये वंचित और शक्तिहीन समुदाय उच्च और शक्तिशाली (सुविधा संपन्न और अधिकार संपन्न) वर्ग के सामने लंबी समयावधि तक भी अपने दम पर अपने हक की लड़ाई लड़ने मे सक्षम नहीं हो पाएगा. इसलिए ऐसी उम्मीद की गयी थी की राज्य कार्यकारिणी, विधायिका और न्यायपालिका के संस्थान सकारात्मक और संवैधानिक भावना का सम्मान करते हुए, राज्य की इस नीति का पालन करेंगे और उचित और आवश्यक प्रतिक्रिया देंगे.

कहीं ऐसा ना हो कि सरकारी तंत्र एक उदासीन या पक्षपात पूर्ण तरीके से कार्य करने लगें, इस पर निगरानी रखने के लिए विशेष निगरानी तंत्रों की स्थापना की गयी ताकि नीतिगत प्रतिबद्धता और इसके पालन के उद्देश्य से बनाई गयी व्यवस्था अपने नियत रास्ते से भटके नहीं. 

इस रण नीति में ये भी आशा और आदर्शवादी दृष्टिकोण संजोया हुआ थी की बहुसंख्यक हिंदू समाज भी स्वयं अपनी ज़िम्मेदारी समझ कर एक उदार और मानवीय नीति और लोकतांत्रिक प्रक्रिया अपनाते हुए ज़रूरी सहयोग देगा और स्वयं को इन आधारों पर खुद को बदलकर एक संपूर्ण और सकारात्मक सामाजिक बदलाव मे अपना सहयोग प्रदान करेगा. इस प्रकार ये उम्मीद की गयी थी की सोशियल इंजिनियरिंग के इस प्रयास द्वारा अन्य समुदायों के दलित, उत्पीड़ित और शोषित समुदायों के प्रति चले आ रहे रवैये और व्यावहारिक प्रतिक्रिया मे व्यापक और सकारात्मक परिवर्तन देखने को मिलेंगे.

मानवाधिकार आयोग की इस रिपोर्ट के आगे के भागों मे विस्तार से इस बात की जाँच की गयी है और कारण बताए हैं कि इस त्रि-आयामी रणनीति के  अभीष्ट उद्देश्य संपादित/कार्यान्वित हुए, ज़मीनी हक़ीकत बने भी कि नहीं या फिर अनुसूचित जातियों के खिलाफ परंपरागत जारी हिंसा, जो कि धीरे धीरे और चुपचाप अस्पृश्यता के पालन द्वारा, तरह तरह की बाधाएँ लादकर और निर्योग्यताएँ थोप कर, भेदभाव करके, पक्षपातो और छुवा छूत आधारित परंपराएँ जारी रखकर तथा प्रत्यक्ष रूप से शारीरिक हिंसा करके और उनके प्रति जघन्य अपराध जैसे हत्या, नरसंहार, बलात्कार, आगज़नी आदि द्वारा सतत रूप से अन्य समुदायों द्वारा जारी रहती है; ताकि जाति आधारित सामाजिक व्यवस्था को लागू रखा जा सके और इसमे होने वाले परिवर्तनों के खिलाफ बहुत ही सख़्त प्रतिरक्षा दलितों के मन मे भय बैठाकर स्थापित रखी जा सके, वो वैसे ही जारी रही या कम हुईं.

अगर इस पॉलिसी का पालन नहीं हुआ है तो कभी आगे ये भी बताया जाएगा की राज्य की इस त्रि-आयामी पॉलिसी के कार्यान्वयन और इसे समाज मे लागू करने के रास्ते मे कौन सी बाधाएँ आई और इनके पालन मे क्या कुछ सही नहीं रहा. समय मिला तो इस विषय पर भी बात की जाएगी की संविधान और राज्य की पॉलिसी मे निहित इस प्रकार की आशा को बहुसंख्यक हिंदू समाज ने अपनी इन घ्रिणित परंपराओं को छोड़कर उदारवादी और मानवतावादी और जनतांत्रिक सामाजिकता को अपनाने मे कितनी उत्सुकता दिखाई ताकि भारतीय सभ्यता भी दुनिया की विकसित सभ्यताओं के स्तर को प्राप्त कर सके और यह भी चर्चा की जाएगी कि क्या "राज्य -नागरिक समाज इंटरफेस" ने इस मुद्दे पर सकारात्मक सामाजिक बदलाव के लिए ज़रूरी सदभाव दर्शाया या नहीं!! 

धन्यवाद!
Source: Human Right Commission Report by K. B. Saxena (For Govt. of India)